आज मातृभाषा का दिन है.जाहिर है अन्य दिनों की तरह हम आज भी अलग अलग माध्यम से इस दिन की शुभकामनाएं एक-दूसरे को प्रेषित करेंगे और मातृभाषा को लेकर अपनी चिंताएं भी. किसी भी खास दिन को लेकर बधाई सन्देश प्रेषित करना सबसे आसान और अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने जैसा है. एक भाषा के रूप में मातृभाषा वो चाहे कुमाऊनी, गढ़वाली,जौनपुरी-जौनसारी हो या किसी प्रदेश की अन्य कोई भाषा या राष्ट्रीय भाषा हिन्दी. ये दिन शुभकामनाएं भेजने औऱ भाषा को लेकर चिंताएं व्यक्त करने का दिन मात्र बनकर रह गए हैं. फेसबुक औऱ व्हाट्सएप ने यह काम और आसान कर दिया. कुमाउनी – गढ़वाली या हिन्दी के प्रति शुभकामना संदेश भेजने के बाद उस भाषा के संवर्धन, शब्दकोष को बढ़ाने और उसके प्रचार-प्रसार के रूप में हम क्या सहयोग करते हैं अधिक महत्वपूर्ण है. कई सारे लोग जिनके परिवार में अपनी मातृभाषा जिसमें कुमाऊनी-गढवाली के साथ हिन्दी भी शामिल है बोल-चाल की भाषा रही ही नहीं. बच्चे के पैदा होते ही उसे अंग्रेजी सिखाने की होड़ में जब बच्चा अंग्रेजी के कुछ शब्द बोलने लगे तो परिवार की खुशियां देखते ही बनती हैं. यही आकर्षण, सम्मान और भाषा सीखने में दिलचस्पी अन्य भाषाओं ख़ासकर मातृभाषा जिसमें हिन्दी भी शामिल है को क्यों नहीं दे पाए? आज जब कोई किसी मंच से अपनी बात यदि अंग्रेजी में रखे तो उसको बुद्धिमान और पढ़े-लिखे होने की एक धारणा का बन जाना अपनी भाषा को कम आँकने और भाषा की जरूरत और उपयोग को न समझने जैसा ही है.
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है. अपने मन के भाव, विचार को बोलकर, लिखकर अपने से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाने में शब्दों के रूप में हम भाषा का इस्तेमाल करते हैं. भाषा उनकी भी होती है जो बोल नहीं सकते. संकेतों की भाषा. लिख़ने-पढ़ने के अलावा सुनना भी भाषा के अंतर्गत आता है. सही शब्द का चयन, सही अर्थ के साथ जो आप कहना चाहते हैं वह दूसरे तक भाषा की अलग-अलग विधाओ द्वारा पहुंचता रहे भाषा का मुख्य कार्य और उपयोगिता है. जो भाषा जितनी समृद्ध होगी, जितना समृद्व उसका शब्दकोश होगा बात करना, लिखना-पढ़ना भी उतना ही आसान होता चला जायेगा.भाषा की समृद्धि का अंदाज लगाने के लिए उदाहरण के तौर पर हिन्दी के शब्दकोश में जहाँ बदबू को प्रदर्शित करने के लिए दुर्गन्ध, बू आदि हैं वहीं अंग्रेजी में smell, bed, stench आदि शब्द हैं. कुमाऊँनी में गंध को व्यक्त करने के लिए बास शब्द है लेकिन बास किस चीज से है बताने के लिए ढेरों शब्द हैं जैसे भैंस से आने वाली बास भैसैन, कपड़ा जलने पर हतरैन, मल- मूत्र की बास के लिए चुरैन, गुवैन, गुबरैन,मिर्च जलने पर खौसैन, सड़ी चीज के लिए सडैन, कीड़े के लिए किडैन आदि कई शब्द ये बताने के लिये काफी हैं कि हमारी कुमाऊँनी भाषा कितनी समृद्ध है.एक सशक्त भाषा के रूप में कुमाऊनी हो या गढ़वाली,अपनी बात पहुँचाने के लिए इन भाषाओं में अनगिनत शब्दों का ढेर है. फिर भी यह दुर्भाग्य ही है कि बच्चों के सीखने – समझाने की भाषा हिन्दी और अंग्रेजी ही है. प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा तो लगभग -लगभग स्कूलों से जा ही चुकी है, हिन्दी के प्रति भी ख़ास लगाव दिखता नहीं. कई शोध और निष्कर्ष बताते हैं कि एक बच्चे के लिए विद्या के प्रारम्भिक दिनों में मातृभाषा सीखने- समझने में अन्य भाषा से सबसे आसान है. भले कुमाऊनी में लिखे जाने वाली लिपि हिन्दी ही है परन्तु बातचीत समझने की भाषा के रुप में खासकर प्राथमिक स्तर पर इसका अत्याधिक प्रयोग अपनी मातृभाषा के रूप में ना केवल जल्दी सीखने-समझने में मददगार होगा बल्कि इससे भाषा के प्रति सम्मान का भाव भी पैदा होगा. असल में किसी भी भाषा को बड़ा-छोटा बनाने में स्कूल और हमारी व्यवस्थाएं ही अत्यधिक जिम्मेदार हैं.
मातृभाषा कुमाऊनी के संवर्धन के लिए कई सार्थक प्रयास पिछले कई दशकों से किए जा रहे हैं. कुमाऊँनी साहित्य को समृद्ध बनाने में कई लोग व संस्थान कार्य कर रहे हैं. वर्तमान में कुमाऊँनी भाषा और साहित्य के लिए अच्छा काम कर रहे लोगों में श्री जगदीश चंद्र जोशी जी (मासाब)का भी नाम शामिल है. राजकीय विद्यालयों में अध्यापन के दौरान भले उनके द्वारा बच्चों को अंग्रेजी भाषा अधिक पढ़ाई गयी हो किन्तु कुमाऊँनी भाषा के प्रति उनका लगाव, भाषा की समृद्धि के लिए किए जा रहे प्रयास, उनके द्वारा लिखी गई रचनाएं जिसमें कई कविताएं-कहानियां, पुस्तकें आदि शामिल हैं साबित करती हैं कि काम के रूप में हमारी भाषा हिन्दी, अंग्रेजी कुछ भी रहे लेकिन आपसी बोलचाल की भाषा, मन की भाषा, विचारों की उत्त्पत्ति की भाषा अपनी लोकभाषा मातृभाषा ही है.
किसी भी नई भाषा खासकर अंग्रेजी को सीखते हुए भी दूसरी भाषाओं के प्रति हमारे मन में सम्मान बना रहे और भाषा के रूप में हम अपनी मातृभाषा को पिछड़ी या हीन दृष्टि से न देख अन्य भाषाओं की तरह अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखेंगे तो भाषा के लिए किसी ख़ास दिन की आवश्यकता ना होगी.
